Table Of Content. (नवीन )
अनुवादचन्दिका
अथवा
अनुवाद-व्याक रण-निबन्ध-परिचायिका
प्रणेता
श्रीचक्रधरशर्मा शास्त्री,
एस० ए०, एल ० टी०
प्रकाशक
श्री जगदीशचन्द्र नोटियाल.
नोटियाल-पुस्तक-भण्डार ,
२६, सुन्दरबाग, लखनऊ
प्रथम संस्करण |... . १६४५४ [ मूल्य २॥)
प्रकाशक
श्री जगदीशचन्दर नॉटियाल,
२६ सुन्दर बाग, लखनऊ :-:
मुद्रक
भुग्राज भार्गव
नव-ज्योति प्रेस
लखनऊ (फोन र३े६४६)
विषय-सूची
पृष्ठ
विषय विषय
१ प्रावकथन २७ कमंवाच्य श्रोर भाववाच्य १४४
२ धातुओं के रूप २८ वाच्य परिवतेन १४६
३ भ्रजन्त दाब्दों के रूप २६ सोपसगक धातुए १४६
४ अविकारो दाब्द (श्रव्यय) ३० क्ृदन्त १६१
भर प्रथमा विभकत ( कर्ता ) ३१ तद्धितान्त शब्द. श्छ्८
६ द्वितीया विभकत (कर्म) ३२ समास प्रकरण श्फर
७ तृतीया विभक्ति ( करण ) ३३ स्त्रीप्रत्यय प्रकरण श्प्फ
८ चतुर्थी विभकति (सम्प्रदान ) ३४ व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग १६१
९ पञ्चसी विभक्ति (अपादान) ३५ संज्ञावाचक दाब्द २०९
१० षष्ठी विभक्ति (सम्बन्ध) ३६ लिड्दज्ञान २१२
११ सतप्मी विभवित (अधिकरण ) ३७ लेखोपयोगो चिह्न २१७
३८ अनुवादार्थ संस्कृत वाक्य २१६
१२ सम्बोधन
१३ उपपद विभक्तियाँ ३९ वाग्व्यवहार के प्रयोग श्र२२
१४ श्रन॒ुवादार्थ इलोक ४० लोकोक्तियाँ र२रक
४१ शद्भधाशुद्ध ज्ञान २३७ ..
१५ कारक एवं विभक्ततियाँ
3. केलनन ही
४२ अनुवादार्थ गद्य-पद्य संग्रह
१६ सर्वेनाम शब्द
। हे
१७ सन्धियाँ ४३ संस्कृत अनुवाद के उदाहरण कूल '
१८ हलन्त शब्दावली ४४ यू० पी० हाईस्कूल परीक्षापत्र के
२७५:
१९ विशेषण (संख्यावाचक ) १०७ ४५ एडमिशन परीक्षापत्र
२० विशेषण (गुणवाचक ) ५११४ ४६ काशी प्रथम परोक्षा रुक
२१ श्रजहल्लिड्भ (विशेषण ) १२० ४७ पटना हाईस्कूल परोक्षा २८४
४८ पंजाब यूनिवर्सिटि की एण्ट्रें
२२ क्रिया विशेषण १२३
२३ क्रिया-प्रकरण १२४ परीक्षा के प्रहन र्ष्€
२४ प्रेरणार्थक क्रियाएँ १३८ ४९ पंजाब यूनिवर्सिटि की प्राज्ञपरीक्षा
२४ सच्नन्त धातुएँ १४१ के प्रदन शहर
२६ यड-न्त धातुएँ १४३ ५० निबन्धरत्नमाला ३०१
थरों नमः परमात्मने
तहिंव्यमव्ययं॑ धाम सारस्वतमुपास्महे ।
यत्प्रसादात्प्रलीयन्ते मोहान्धतमसइछटा ॥॥
सआक्कथन
रचना का उद्देश्य-भारतीय संस्कृति का स्रोत एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी
तथा अन्य भारतीय भाषाश्ं की जननी, संस्कृत भाषा का श्रध्ययन उसके नियमबद्ध
व्याकरण की दुरूहता केक ारण कठिन हो गया हैँ ।त थापि इस तथ्य को तो सभी
देश-विदेशी भाषा-विद्यारदों ने माना हे कि संस्कृत भाषा का व्याकरण श्रत्यन्त
देज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित हैँ । नि:सन्देह उसके प्राचीन ढड्झः के अध्ययन तथा
अध्यापन से आजकल के सुकूमार बालकों का श्रपेक्षित बुद्धिविकास नहीं होता और
न उन्हें वह रुचिकर ही प्रतीत होता हे ।इ सी कठिनाई को ध्यान में रखते हुए
हमने संस्कृत भाषा के अ्रध्ययन एवं श्रध्यापन को श्राज कल के वातावरण के श्रनकल
सरल तथा सुबोध बनाने का प्रयत्न किया हूं ।
|
.... वाक्य-रचना--वाक्य-रचना में भाषा का प्रयोग होता हे। भाषा हो एक
ऐसा साधन हे जिसके द्वारा मानव-समाज अपने भाव ओर विचार दूसरों पर प्रकट
करता है । भाषा में बाणी का हो नहीं, अ्रपितु संकेतों का भी समावेश है । लिखने
और बोलने में हम भाषा का ही प्रयोग करते हैं; जंसे--संस्क्रृत भाषा, श्रद्धरेजी
भाषा, हिन्दी भाषा श्रादि का
संस्कृत भाषा' उस भाषा को कहते है, जो संस्कृत श्र्थात् शुद्ध एवं परिमाजित
२ नवीन अनवादचन्द्रिका
हो । भाषा वाक्यों से बनती है; वाक्य में भ्रनेक दाब्द रहते हें और भत्येक शब्द
में ध्वनियाँ# रहती हें। उदाहरणाथें--
“चन्द्रगुप्त एक प्रतापी राजा था ।” इस वाक्च में पाँच शब्द हैं ओर प्रत्येक
दब्द में पथक-पथक ध्वनियाँ हें। “चर्द्रग॒प्त' दाब्द में चू--अ-+ननदरन-रन श्र
-+ग्--उ-प--त् + ञ्र' ग्यारह ध्वनियाँ हें। 'एक' में ए+कन॑श्रा तीन
ध्वनियाँ हें । द
यह लिपि. जिसमें हम इन श्रक्षरों को लिख रहे हैं, 'देवनागरी' कहलाती है ।
ग्राजकल संस्कृत तंथा हिन्दी भाषाएं इसी लिपि में लिखो जा रही हूँ। प्राचीन काल
में संस्कृत भाषा ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती थी । द
स्वर और व्यहझूज़न--ये ध्वनियों के दो भेद हैं । स्वर और व्यञ्जन में ध्वनि
का भ्रन्तर हे। स्वर के बोलने में मुख-द्वार कम या श्रधिक खुलता हू, वह बिलकुल
बन्द या इतना संक्चित नहीं किया जाता कि हवा रगड़ खाकर बाहर निकल सके ।
व्यञ्जन के उच्चारण में मुख-द्वार या तोस हसा खुलता है या इतना संकुचित हो
जाता हैं किह वा रगड़ खाकर बाहर निकलती है। इसी रगड़ या स्पर्श के कारण
ब्यञ्जन स्वरों से भिन्न हो जाते हूँ ।स ्वर तीन प्रकार के होते हँ-- हस्व, दोघे
और मिश्रित । दीघे स्वर के उच्चारण में ह्ृस्व स्वर की श्रपेक्षा दुगुना समय लगता
हैँ ॥ व्यअजनों को हल् अक्षर भी कहते हें, जेसे--क, ख्, ग् श्रादि । संस्कृत एवं
हिन्दी भांषाशओरों में इन्हीं श्रक्षरों (स ्व॒रों एवं व्यञ्जनों ) का उपयोग होता हुँ ।
[श्र इ॒ उ ऋ ल-हस्व ( एक मात्रिक )
स्वर < आ ई ऊ ऋ-दीर्घ (द्विमात्रिक )
६. ए ऐ ओो झौ-+मिश्चितां
+ 7 #मानव की बारी के उस छोटे-से-छोटे अंश को ध्वनि कहते हें, जिसके टुकड़े
न किये जा सकें। ध्वनि के उस छोटे से लिखित अंश को ही वर्ण अथवा अक्षर
कहते हं।
भिश्चवित स्वर विक्ृत और' दीघे हें,.जंसे---श्र-|इ८-ए
:हव॒र और व्यञ्जंत डे
गे घ . डा---कवर्गे ३ का
अ-चवबर्ग
*पजैदपलरयकााकफरओनरीी.ी ण--टवर्गे हपर्दोक
व्यञ्जन न--तवर्ग _
सभ॥ठरग म-- पंवर्ग
“6खपार5रकनब«स७ जम(ायभ ्.य ि.ीश ल ् धवधया.. बश्नरज ओआज- ब- श्रन्तःस्थ सतािल
नभ4 लजओन थ|थआ42अ॥ े. ह--ऊष्स
ककअ>आल२ाकमक य
: अन॒स्वार
४ अनुनासिक
५ विसगें
२५ वर्ण--क से लेकर म तक--स्पशश कहलाते हैं । ४ वर्ण--य र ल ब--अश्रन्तःस्थ
हैं, श्र्थात् इसके उच्चारण करने में भीतर से कुछ भ्रधिक बल से साँस लानो पड़तो
है। पाँचों वर्गों केप ्रथम और द्वितीय अ्रक्षर ( क ख, च छ श्रादि ) तथा ऊष्म वर्णों
को “'परुष व्यझजन' और शेष कणों (ग घ आदि ) को 'कोमल-व्यअजन' कहते
हैं। व्यञ्जनों के दोऔ र प्रकार हे--अल्प्राण तथा महाप्राण । पाँचों वर्गों के
पहले और तोसरे वर्ण ( कग, च.ज झ्रादि ) श्रल्पप्राण हेंत था दूसरे और चौथे
वर्ण (ख घ, छ भा श्रादि ) महाप्राण हूं। वर्गों केपञ ्चम वर्ण (डःजण्नूस )
ग्रनुनासिक व्यञ्जन कहलाते हें । ध्वनि के विचार से वर्णों केक ण्ठ आ्रादि स्थान हें ।%
#व्यठ्जन के उच्चारण में मुख के किसी न किसी भाग. का दूसरे भाग से
छन कछ स्पर्श अवश्य होता है; जैसे च्क े उच्चारण में जिह्ना का तालु से
तथा त् के उच्चारण में जिद्दा का दाँतों से स्पश होता हे ।
#ध्वनि के विचार से वर्णों का सथान--ञअ आ : हू क् खू यू घ् छः (कण्ठ)
इईयूश चू छ ज कूजू (ताल)
ऋऋषरपष् टू ठ ड ढुश॒ (मर्धा)
लू लूसूृतृथ दू ध्ून -. (दन्त)
उठ फू ब् भूम (ओष्ठ)
ए-ऐ (कण्ठ ताल), ओ झौ (कण्ठ ओष्ठ )
व् (दन्त ओष्ठ), अनुस्वार . (नासिका)
डः आदि का स्थान (कण्ठ नासिका आदि)
हे नवीन अनुवादचच्दिका
अनवाद--किसी भाषा के शब्दार्थ को दूसरी भाषा के शब्दों में बदलने को
अनुवाद कहते हैं! ै
[ श्रनु--पश्चात्, बद्--त्वाद+कहना;। एक बात को फिर से कहना यानो
. एक बात को भश्रन्य शब्दों में बदल करके कहना। इस योगिक श्रथं के श्रनुसार
प्रनवाद एक भाषा से उसी भाषा में भी होस कता हैँ, परन्तु लोक व्यवहार में
' प्रनवाद दाब्द का योगरूढ़ धर्थ ही प्रसिद्ध हे, श्र्थात् 'एक भाषा को दूसरी भाषा में
बदलना । | है
. ख्रनवाद-प्रणाली के वर्णन करने से पूर्व वाक्य में जो सुबन्त, तिडन्त आदि शब्द
.. रहते हैंउ नका विवेचन करना तथा कारकों पर प्रकाश डालना यहाँ पर उचित होगा।
क् कारक (कर्ता, कर्म आदि)-- गोपाल पुस्तक पढ़ता हैँ ।” इस वाक्य में
पढ़नेवाला 'गोपाल' है । “राम ने रावण को मारा । इस वाक्य में सारनेवाला (राम
है। 'पढ़ना' और 'मारना ये दो क्रियाएँ हैं ।इ न क्रियाओं के करने वाले “गोपाल!
और 'राम' हैं। क्रिया के करनेवाले को कर्त्ता कहते हैं। श्रतः इन दो वाक्यों में
गोपाल! और “राम' कर्त्ता हें। कि
प्रथम वाक्य में पढ़ने का विषय (पुस्तक है और द्वितीय में मारने का विषय
'रावण' है । पुस्तक और रावण के लिए हो कर्त्ताश्नरों ने क्रियाएं को, श्रत: मुख्यतः
जिस चीज के लिए कर्त्ता क्रिया को करता हुँ,उ सको कर्म कहते हें।
“राजा ने अपने हाथ से ब्राह्मणों को दान दिया । इस वाक्य स दान क्रिया
की पूर्तिह ाथ से हुई, अतः हाथ करण हुआ । इसी बाक्य में दान को क्रिया ब्राह्मणों'
के लिए हुई, श्रतः “ब्राह्मण” सम्प्रदान हुआ ।
“श्राम के वक्षों सभेू मि परफ ल गिरे ।” इस वाक्य में व॒क्षों सेफ ल पृथक्
. हुए, श्रत: “वृक्ष! श्रपादान हुआ । फल भूमि पर गिरे, झ्त: “भूमि, अधिकरण हुई।
श्राम का सम्बन्ध वक्षों से है, श्रतः आम सस्बन्ध हुआ । 9
._उपरिलिखित चार वाक्यों में 'पढ़ना' 'मारना' 'देना' झ्ौर' गिरना क्रियाओ्रों के
- सम्पादन में जिन कर्त्ता, कर्म श्रादि शब्दों का उपयोग हुग्ना हे उन्हें कारक कहते हूं।
द कारक ५
कारक वह वस्तु हेंज िसका उपयोग क्रिया की पूति के लिए किया जाता हूँ । अनेक
वेयाकरणों ने सम्बन्ध को भी कारक माना हें ।
कारकों को जोड़ने के लिये जो “ने 'को' आदि चिह्न काम में श्राते हैं उन्हें
'विभक्ति' (कारक-चिह्न ) कहते हें ।
विभक्तियाँ (( १४४९-४४४78) .कारक ((/98९८४) अर्थ ([९७॥029 )
प्रथमा - कर्ता ((९०००7॥७४४ए०) (वह वस्तु), न
द्वितीया .... कस (॥00788/7776) को
तृतीया .. करण (87प7679 ) ने, से, द्वारा
चतुर्थी सम्प्रदान ([)86098 ) को, के; लिए
पञ्चमी अपादान (ह0]/8078). से#%
षष्ठी . सम्बन्ध (9०४००) का, के, की.
सप्तमी क् श्रधिकरण (,008/7८ ) में, पर
सम्बोधन श सम्बोधन [४/०0००७४४७).. है, श्रये, भो;
इन प्रथमा आदि विभकितयों से कारकों का ही निर्देश नहीं होता, अपितु
ये विभकतियाँ वाक्य में प्रति, बिना, श्रस्तरेण, श्रन्तरा, ऋते, सह, साकम् आ्रादि
निपातों के योग से भी “नाम से परे प्रयकक्त होती हैं ।इ नके साथ-साथ नमः, स्वस्ति,
स्वाहा, स्वधा, श्रलम् श्रादि अव्ययों के योग से भी व्यवहृत होती हैं । ऐसी दशा में
इन्हें “उपपद विभक्तियाँ” कहते हें।
कारकों केस मभने के लिए छात्रों को श्रन्य भाषाओं का सहारा न लेना
चाहिए। उन्हें कारकों के ज्ञान श्रथवा शुद्ध संस्कृत भाषा के बोध के लिए संस्कृत
कत वाच्यप्रयोगे तु प्रथमा कत कारके । द्वितीयान्तं भवेत् कर्म क्त्रेघीने
क्रियापदम । कर्त्ता कम च संप्रदान तथेंव च करण च । अ्रपादानाधिकररणों इत्याहु
कारकारि षट् ।। द
#जब पृथक् होने या हटने का ज्ञान हो तब अपादान (पञथ्चमी) होता है
झ्लौर जब संज्ञा से क्रिया केस ाधन (जरिया) का ज्ञान हो तब करण ([(तृतीया)
होता है ।
हु नवीन अ्रनवादचन्द्रिका
साहित्य का परिशीलन करना चाहिए। कहाँ कौन सा कारक है इसका ज्ञान दिष्ठों
. भ्थवा प्रसिद्ध संस्कृत प्रन्थकारों केव ्यवहार से ही हो सकता हूं, क्योंकि “विवक्षात: '
कारकाणि भवन्ति । लौकिकी चेह विवक्षा न प्रायोक्त्री (7?
संस्कृत के व्याकरण म सुबन्त और तिडनन्त के रूपों का प्रतिपादन किया गया _
है। छात्रों कोय ेक ठिन और शुष्क प्रतीत होते है। श्रतः सुबन्त शोर तिडसन्त के.
समस्त रूपों का याद कर लेना सुगम नहीं है । श्रतः हमने आचाये पाणिनि के
नियमों के श्राधार पर छात्रों केल िए वैज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित ढ़ पर विषय का.
प्रतिपादन किया हैं।
नाम या सुबन्त शब्दों केस ाथ सात विभक्तियों के तोन वबचनों में २१ प्रत्यय
लगते हैं। उन विभक्तियों केस ाधारण ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम यहाँ पर _
'सरित्' शब्द के रूप में दे रहे हैं । इनमें प्रायः सब प्रत्यय (सु को छोड़कर) श्पने .
हूपों में स्पष्ट हें। द द
सरित् (नदी )
एकववन द्विवचन बहुवचन
च्र० सरित् ... सरितो सरित:
ह्वि० सरितम् सरितो सरित:
तृ० सरिता सरिद्भ्याम् सरिद्भिः
च० सरिते सरिद्भ्याम॒ सरिद्भ्य:
पं० सरित: सरिवद्भ्याम् सरिद्भ्यः
घ० सरित: सरितो:ः सरिताम्
स० सरिति सरितो; सरित्सु
सं० है सरित् है सरितो हे सरित:
सुबन्त के २१ प्रत्यय
एकवचन द्विवचन बहुवचन
०... सू (सु) औ प्रस् (जस्)
द्विण् अ्रम्॒. श्रो (भ्रौट) अ्रस॒ (दास )
भ्च